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अंगारक योग माहात्म्य पूजा महत्व व जन्म कथा.


ब्रह्मा बोले- हे राजन। तुम अंगारक चतुर्थी की महिमा को सावधान होकर सुनो। अवंती नगर में भारद्वाज नामक महामुनि थे। वह वेद तथा वेदांग के ज्ञाता , बुद्धिमान, सभी शास्त्रों में निष्णात, अग्निहोत्र मे निरत तथा नित्य सोंग को अध्यापन मे तत्पर रहते थे। वह मुनि नदी तट पर बैठकर अनुष्ठान में निरत रहते थे। एक दिन उन्होंने सुंदर अप्सरा को देखा l उसे देखकर महामुनि के मन हमें इच्छा जागृत हुई। वह मुनि अकस्मात कामिनी कामिनी को देखकर काम आसक्त हो गए और काम के बाणों से पीड़ित होकर भूमि में गिर पड़े। उनके अत्यंत विक्षुब्ध शरीर से वीर्य स्खलित हो गया तथा उनका वह वीडियो पृथ्वी में बने हुए एक बिल में प्रविष्ट हो गया। उससे जपाकुसुम के समान रक्त वर्ण का बालक उत्पन्न हुआ l वहां की भूमि ने स्नेहवश आदर के साथ उसका पालन किया l उस बालक का पालन पोषण करने से वहां की भूमि अर्थात उस भूमि की प्रजा अपने जन्म अपने माता पिता तथा अपने कुल को धन्य मानती थी। वह बालक जब 7 वर्ष का हुआ तो उसने अपनी जननी से पूछा कि मनुष्य देह धारी होने पर मेरे शरीर में लालिमा क्यों है? तथा हे माता! मेरे पिता कौन है? मुझे अभी बतलाओ। धरती बोली - भारद्वाज मुनि का वीर्य स्खलित हो कर मेरे अंदर समाविष्ट हो गया था। हे पुत्र! तुम उसी से उत्पन्न हुए हो तथा मैंने सुबह निमित्य से तुम को पाल पोस कर बड़ा किया है। वह बोला- हे माता! तब मुझे उस तपो निधि मुनि का दर्शन कराओ। ब्रह्मा बोले-देवभूमि देवी उसको लेकर भारद्वाज मुनि के पास गई। उनको प्रणाम करके वह बोली कि यह पत्र तुम्हारे वीर्य से उत्पन्न हुआ है l इसको मैंने पाल पोस कर बड़ा किया है l हे मुनि! अब मैंने आपके समक्ष उपस्थित कर दिया है। आप इसको स्वीकार करें l तब उनकी आज्ञा से धात्री पृथिवी अपने सुंदर घर को लौट गई। भारद्वाज मुनि उस पुत्र को प्राप्त कर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसका आलिंगन किया l इन्होंने उसके सिर को सुनकर प्रसन्नता से अपने उत्संग गोद में बैठाया। मुनि जी ने शुभमुहूर्त में और शुभ लग्न लग्न में उसका उपनयन किया।उन्होंने उसको वेद शास्त्रों की शिक्षा देकर तथा गणेश जी के शुभ मंत्र का उपदेश देकर कहा कि तुम गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए श्री अकाल तक उनके मंत्र का अनुष्ठान करो l वह प्रसन्न होकर तुम्हारे मन की सभी इच्छाओं को पूर्ण कर देंगे। तब वह बालक मुनि नर्मदा के तट पर जाकर पद्मासन लगाकर बैठ गया।वह शीघ्रमेव अपनी इंद्रियों को संयमित नियंत्रित करके अपने ह्रदय हमें गणेश जी का ध्यान करते हुए गणेश जी के श्रेष्ठ मंत्र का जप करने लगा था l वह केवल वायु भक्षण करता था l अतः अत्यंत कृषकाय हो गया था l इस प्रकार उसने एक सहस्त्र वर्ष तक अत्यंत कठोर तप किया l तब माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन की रात्रि में निर्मल चंद्रमा के उदय होने पर गणेश जी ने उसे अपने दिग भोजा दशभुजा स्वरूप का दर्शन कराया। उन्होंने दिव्य वस्त्र धारण किए हुए थे, ललाट में चंद्रमा था तथा उनके हाथ नाना प्रकार के आयोजन से सुशोभित थे।उनकी सूंड बहुत सुंदर थी उनका दांत शोभायमान हो रहा था उनके कुंडली युक्त कॉर्नर सूर्य सूर्य के समान थे और वे कोटी सूर्य के समान ही तमाम थे तथा नाना अलंकारों से आभूषण थे। उस बालक ने अपने समक्ष स्थित और भगवान गणेश जी के इस स्वरूप को देखा तो उठकर और जगदीश्वर को प्रणाम करके उनकी स्तुति की।

भौम उवाच -

नमस्ते विघ्न नाशाय नमस्ते विघ्नकारिने । सुरा सुराणामीशाय सर्व

शक्त्यु प बृंहिने।।

निरामयाय नित्याय निर्गुणाय गुणच्छिदे । नमो ब्रह्मविदां श्रेष्ठ स्थिति संहार कारिणे।।

नमस्ते जगादा धार नमस्त्रैलोक्य पालक। ब्रह्मा दये ब्रह्मविदे ब्रह्म रूपिने।।

लक्ष्या लक्ष्य स्वरूपाय दुर्लक्षण भिदे नमः। नमः श्री गणनाथाय परेशाय नमो नमः।।

इति स्तुतः प्रसन्नात्मा परमात्मा गजाननः। उवाच श्लक्ष्णया वाचा बालकं संप्रहर्षयन्।।


विघ्ननाशक,विघ्नहर्ता सुर और असुरों के स्वामी तथा सभी शक्तियों की वृद्धि करने वाले परमेश्वर गणेश जी को नमस्कार है। निरामय निर्दोष नित्य निर्गुण गुणों सत्व रज तम का उच्छेद करने वाले ब्रह्म वेत्ताओं में श्रेष्ठ स्थिति पालन और संहार करने वाले जगत के आधार तीनों लोगों के पालनकर्ता ब्रह्मा के आदि कर्ता ब्रह्मा वेत्ता ब्रह्म तथा ब्रह्मा रूपी श्री गणेश जी को नमस्कार है। लक्ष्या लक्ष्य स्वरूप

दूर्लक्षणोंके नाशक परमेश्वर गणनाथ श्री गणेश जी को नमस्कार है नमस्कार है l इस प्रकार की स्तुति से प्रसन्न परमात्मा गणेश जी ने उस बालक को हर्षित करते हुए कोमल वाणी में कहा। गणेश जी बोले- तुम्हारी कठोर तपस्या से भक्ति से तथा इस स्तुति से तथा बाल्यावस्था में भी तुम्हारे ऐसे धैर्य से प्रसन्न होकर मैं तुम को वरदान देता हूं। ऐसा कहे जाने पर भूमि पुत्र ने गणेश जी से यह वचन कहे।

भौम बोला- हे देवेश ! आपके दर्शन से मेरी दृष्टि अर्थात आंखें धन्य हो गई है मेरा जन्म धन्य हो गया है मेरा ज्ञान मेरा कुल तथा हे प्रभु! पर वतन सहित यह पृथ्वी तथा मेरा यह संपूर्ण तपा भी धन्य है जिससे मुझे आप अखिलेश्वर का दर्शन प्राप्त हुआ है। मेरा यह आवास तथा यह मेरी वाणी भी धन्य हो गई है जिसने मूल भाव से आपकी स्थिति की है। हे देवेश! यदि आप प्रसन्न है तो मेरा निवास स्वर्ग में हो। हे गणेश जी मैं देवों के साथ अमृत पान करना चाहता हूं। मेरा नाम तीनों लोकों में कल्याण कारक मंगल के रूप में प्रख्यात होवे। हे प्रभु मुझे चतुर्थी तिथि को आपका पुण्य प्रदर्शन प्राप्त हुआ है, अतः यह पुण्य प्रद तिथि संकट हारिनी बने तथा आपकी कृपा से यह तिथि व्रत कर्ताओं की मनोकामना को पूर्ण करनेवाली बने।

गणेश जी बोले- हे भूमि पुत्र! तुम स्वर्ग में देवों के साथ सम्मान पूर्वक अमृत पान करोगे तुम भूलो का में मंगल नाम से ख्याति प्राप्त करोगे। रक्त वर्ण कहां होने के कारण अंगारक लोहितांग तथा लोहित नाम से ख्यात होवोगे । तुम कुमार कहलाओगे तथा धरती के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण तुम कुज और भौम नाम वाले होवोगे।


अंगारक व्रत माहात्म्य

जो मनुष्य अंगारक चतुर्थी को व्रत करेंगे उनको संकष्टी चतुर्थी के 1 वर्षों के औरतों के तुल्य फल प्राप्त होगा तथा उनके सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है। हे परंतु क्योंकि तुमने औरतों में सर्वोत्तम संकष्टी चतुर्थी व्रत किया है अतः तुम अवंती नगर में राजा बनोगे। तुम्हारे नाम के कीर्तन से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होगी। ब्रह्मा बोले इस प्रकार वरदान देकर गणेश जी अंतर्धान हो गए। तब उस बालक भोम मंगलमय भगवान गणेश जी की शुंडा मुख में सूंड़वाली दशभुजाओ वाली सर्वांग सुंदर मूर्ति की भक्ति पूर्वक स्थापना की थी।उसने उन गणेशजी को आनंद देने वाला सुंदर प्रसाद मंदिर बनवाया था तथा उसमें स्थापित उन गणेश जी का मंगल मूर्ति नाम रखा था।तभी से वह क्षेत्र जनों की मनोकामना पूर्ण करने वाला सिद्ध क्षेत्र बन गया। वहां अनुष्ठान पूजन तथा दर्शन करने से जीवन में सभी सुख भोग तथा अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है।तदनंतर भगवान गणेश जी ने असंभव मंगल को अपने पास लाने के लिए अपने गणों के साथ एक सुंदर विमान भेजा। हे राजन! वे गाना उसके पास जाकर उस भवन को बलात उसी देश सहित गणेश जी के पास ले आए। वह अद्भुत सी घटना थी। तब से वह भौम चराचर जगत सहित तीनों लोकों में प्रख्यात हो गया। क्योंकि उस भाव मने मंगलवार युक्त संकष्टी चतुर्थी का व्रत किया था, आता उसे स्वर्ग प्राप्त हुआ था उसने देवों के साथ अमृत का पान किया। अतः तबसे भूलोका में मंगलवार युक्त चतुर्थी अंगारक चतुर्थी के नाम से प्रख्यात हो गई थी।ओ सभा ओम आपके द्वारा स्थापित गणेश जी मन में इच्छित वस्तु के प्रदान करता होने के कारण चिंतामणि नाम से प्रख्यात हुए थे। सभी पर अनुग्रह करने वाले गणेश जी को मंगलमूर्ति भी कहा गया। पारी नहीं नामक नगर से पश्चिम में स्थापित वह सर्व विघ्न विनायक गणेश जी चिंतामणि विनायक नाम से प्रख्यात हुए थे।अब भी कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चंद्रोदय होने पर उनकी पूजा मनुष्यों के अतिरिक्त सिद्ध हों तथा गंधर्वों द्वारा भी की जाती है। वे चिंतामणि गणेश जी पुत्र धनसंपदा आदि सभी मनोकामना को पूर्ण करते हैं।

।। जय गणेश।।


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